सुख, संपत्ति प्रतिष्ठा यश परिवार वैभव में न होकर अंतकरण की पवित्रता में बसता है – स्वामी श्री श्रवणानंद सरस्वती जी
जिसका अंतकरण पवित्र होगा वह उतना परमात्मा के नजदीक होगा और जो जितना परमात्मा के नजदीक होगा वह उतना ही सुखी होगा – स्वामी श्री श्रवणानंद सरस्वती जी
दमोह – श्री सिद्धिदानी देवी मंदिर परिसर प्रोफेसर कॉलोनी में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के द्वितीय दिवस श्री धाम वृंदावन से पधारे स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वती जी के परम कृपा पात्र स्वामी श्री श्रवणानंद सरस्वती जी महाराज ने बताया कि कैसा भी पथ क्यों न हो पथिक जब प्रस्थान करता है तो गिरने की संभावना होती हैं , किंतु गिरकर ना उठाना यह मूर्खता का कारण है जब भी पथ पर व्यक्ति गिर जाए उठकर के तुरंत चलने का प्रयास करना चाहिए प्रयास में परमात्मा का वास है प्रयास परमात्मा का ही स्वरुप है श्रीमद् भगवती वार्ता यह सिखाती है की पथ पर सदा प्रयास रत रहो |
कृष्णद्विपायन जो भगवान के अवतार हैं। संसार को सुखी शांत मधुमह जीवन बनाने के लिए , उन्होंने जो ज्ञान एक था उसके कर विभाग किए। रिग, यजुर,अथर्व और साम के रूप में उस ज्ञान का ही विस्तार महाभारत जैसे दिव्य ग्रंथ में किया। उसी दिव्य ज्ञान की चर्चा पुराणों के माध्यम से लोगों के अनेक अनेक इस्टो के माध्यम से चर्चा की जिसमें 17 पुराणों की रचना हो चुकी किंतु सफलता हाथ नहीं लगी। इतने बड़े पुरुषार्थ महापुरुष के हाथ में जब सफलता नहीं लगी तो उन्होंने हार नहीं मानी संत देवर्षि नारद जी महाराज के मिलने पर उन्होंने अपने ऊपर दृष्टि डाली और प्रार्थना किया कि हमारे कार्य में कोई दोष हो तो मुझे बताओ। संसार में अधिकतर लोग कहते हमारे कार्य में जो अच्छाइयां हो वह बताओ प्रशंसा प्रिय संसार में लोग अधिक होने के कारण पतन की ओर बढ़ रहे हैं किंतु होना यह चाहिए प्रशंसा प्रिय नहीं , अपितु दोष दृष्टि अपने ऊपर रख करके दूसरों के गुणों पर दृष्टि रखकर के पथ में चलना चाहिए।
श्री कृष्णद्विपायन ने जब अपने दोष की ओर निहारा और वेदव्यास जी से कहा , देवर्षि नारद ने कहा कि धर्म के अनुशासन में कई आपने जो निंदित कर्मों का वर्णन कर दिया। इसलिए अब भगवान के विशुद्ध यश को गाओ। क्योंकि भगवान का विशुद्ध यश से ही अंतकरण को पवित्र करता है और पवित्र अंतकरण कारण में सुख का संचार होता है। सुख, संपत्ति प्रतिष्ठा यश परिवार वैभव में न होकर अंतकरण की पवित्रता में बसता है। जितना जिसका अंतकरण पवित्र होगा वह उतना परमात्मा के नजदीक होगा और जो जितना परमात्मा के नजदीक होगा वह उतना ही सुखी होगा। उन्होंने अपना चरित्र भी सुनाया हम लोगों को महदपुरुषों के चरित्र से भी शिक्षा लेनी चाहिए महादपुरुष के उपदेश ही शिक्षार्थ नहीं होते हैं उनका चरित्र भी शिक्षार्थ होता है यह बात देखने को मिली, दूसरी परीक्षित जैसे राजा जो वंश प्रति वंश में पवित्रता का ही वंश रहा किंतु उनसे भी चूक हो गई ,करना था अनुशासन काल पर प्रयास में यही थे किंतु प्रमाद से ऋषि का अपमान कर बैठे किसी का भी अपमान अपने दुख को निमंत्रण देता है किंतु ऋषि का अपमान मृत्यु को निमंत्रण देता है |
पवित्र अंतकरण की पहचान यह थी स्वतंत्र कारण की पहचान यह थी कि जैसे उनको सूचना मिली ऋषि कुमार ने हमें श्रापित किया है। तो वह द्वेष से नहीं भरे प्रतिशोध से नहीं भरे किंतु आत्मशोद के लिए निकल पड़े प्रतिशोध में अंतकरण जलता है आत्मक शोध में अंतकरण खिलता है । प्रतिशोध की भावना से दूर रहकर के आत्म शोध की ओर बढ़ने की यात्रा परीक्षित की है परीक्षित को बहुत सारे संत मिले सभी ने अंतकरण की पवित्रता का साधन परमात्मा की प्राप्ति का साधन किसी ने नाम,किसी ने ध्यान,किसी ने यज्ञ किसी ने स्वाध्याय, किसी ने त्याग आदि का वर्णन किया । परीक्षित विचार करने लगे समय काम है चलना हमें है करें क्या, जब कोई निर्णय नहीं हो पा रहा था तो गुरु जो सचमुच में गोविंद के रूप में होते हैं वही साक्षात गोविंद सुखदेव बनकर आए। जिन्होंने परीक्षित को दिशा दी। परीक्षित को बताया कि तुम ऐसे तत्व नहीं हो जो मरने वाले हो। तुम्हारे शरीर का नाश होगा तुम्हारी आत्मा का नाश हो ही नहीं सकता है ।आत्मा अजर अमर अविनाशी है किंतु शरीर रहते हुए भी भय मुक्त हो जाना यह भक्ति से संभव है। शरीर के बाद मुक्त हो जाना यह तो ज्ञान का स्वभाव ही है । किंतु भय से मुक्त हो जाना यह भक्ति का प्रभाव है तो भक्ति ज्ञान वैराग्य का उन्होंने दिव्य प्रवचन दिया जिसमें संसार के सृजन का, मनु शतरूपा की चर्चा, देहुती कर्दम की चर्चा कहां तक कहे भगवत प्राप्ति किसी उम्र में नहीं , जब आप लग जाओ तभी होती है। 5 वर्ष का ध्रुव भगवत प्राप्ति का प्रयास करता है तो उसे भगवान मिलते हैं। इसलिए जीवन की उत्तरार्ध में भगवान की प्राप्ति का प्रयास न करके जीवन के पूर्व में जीवन की प्रारंभिक स्थिति में भगवान की प्राप्ति का प्रयास जीवन को ही मधुर बना देता है । राग द्वेष से मुक्त बना देता है जैसे ध्रुव का बना। इसलिए इन पत्रों से सीखने लायक है कि अपनी दृष्टि लक्ष्य पर होनी चाहिए ना कि इधर-उधर । लक्ष्य पर दृष्टि रखने वाले को एक न एक दिन गुरु मिलते हैं और जिसे गुरु मिलते हैं उसे गोविंद मिलते हैं। यही भागवत का दिव्य संदेश है । आज की कथा में कई ऐसे रसीले प्रसंग आए जिन प्रसंगों के माध्यम से हमे जीवन जीने की कला मिली, सच्ची बात यह है जीवन परमात्मा ने दिया है किंतु जीवन जीने की कला संत देते हैं महात्मा देते हैं । जिसे जीवन जीने की कला मिली महात्माओं से वही सुखी शांत आनंदमय रहता है तो हमारा हर क्षण आनंद से परिपूर्ण होता है। अधिकतर सांसारियों की खोज या रहती कि वहां पहुंच जाएंगे तब सुखी होंगे आमुख लक्ष्य मिल जाएगा तब सुखी होंगे और संत कहते हैं जहां हो पहले वही सुखी बनो यदि वहां सुखी हो गए तो तुम्हारा लक्ष्य भी सुखमय होगा वर्तमान को मधुमह बनाओ यही भागवत सिखाता है। कथा आयोजन श्रीमती ममता शरद तिवारी
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