दमोह शहर के विजयनगर में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के तृतीय दिवस में स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी के परम कृपा पात्र स्वामी श्री श्रवणनानद सरस्वती जी ने बताया कि मानव जीवन की सफ़लता अंत में भगवान के स्मरण में ही है किंतु जो जीवन काल में परमात्मा का स्मरण करेगा उसीको ही अंत में परमात्मा का स्मरण आएगा। प्रकृति का स्वभाव परिवर्तनशील है, परिवर्तन रूपी स्वभाव का होने के कारण प्रकृति में मिलना बिछड़ना मारना सहज इसका स्वभाव है। यदि व्यक्ति को भागवत का बोध होगा इस परिवर्तन में उसे कष्ट नहीं होगा। ब्रह्मा जी महाराज ने अपने पुत्र नारद को जो उनके पिता नारायण से उनका ज्ञान मिला था, जिसका नाम भागवत ज्ञान है उसका दान दिया , कि इस प्रकृति में चाहे कितना भी परिवर्तन क्यों ना हो किंतु परमात्मा में परिवर्तन नहीं है। परमात्मा था परमात्मा है परमात्मा ही रहेगा । परमात्मा के अतिरिक्त जो परिवर्तनशील है उसी का नाम प्रकृति है उसी का नाम माया है । यह माया परमात्मा की छाया है , छाया की सत्ता नहीं है इसलिए माया की सत्ता नहीं है या भागवत से ही बोध होता है। दूसरा प्रकरण यदि बदला जाए जीव के जीवन में जो वासना है उसकी नहीं पूरी हो पाती है, वह अपने संतानों के द्वारा पूरा करना चाहता है ।धृतराष्ट्र की वासना थी उसे राज्य प्राप्त हो किंतु उसकी यह वासना पूरी नहीं हो रही थी इसलिए वहीं वासना उसने दुर्योधन के माध्यम से प्रकट करना चाहा। किंतु जो प्राप्त धर्म की परंपरा से नहीं होता है और प्राप्त हो जाने के बाद भी विनाश की ओर ले जाता है। जैसे दुर्योधन को राज्य तो मिला किंतु महाभारत युद्ध की ओर ले गया।विदुर जी जैसे संत ने समाज को दिशा देना चाहते हैं किंतु जब समाज उनके दिशा निर्देशन को स्वीकार नहीं कर पता है , तो परमात्मा की दिशा में बढ़ जाते हैं। फिर वह किसी को दिशा देते नहीं है बाद में उद्धव से मिलना और विदुर के बाद सत्संग की धारा में बहना विदुर का मैत्रेय के साथ में या निरूपण करता है की मनुष्य की जीवन की सफलता आस्था व्यवस्था का पालन करते हुए परमात्मा की ओर बढ़ना है जो सत्संग से ही संभव है । विदुर का दिव्य चरित्र इस बात की ओर दिशा देता है। बाद में मनु जी के वंश में मनु की तीनों बेटियां धर्म से जुड़ी होने के कारण उनके जीवन में परमात्मा की प्राप्ति होती है । उनका बेटा एक धर्माचरण करते-करते गुरु चरणों में जाकर के तप करता है दूसरा बेटा राज्य करता है किंतु उसे बेटे के बेटे को भी भगवान मिलते हैं। ऐसे ही प्रथम पुत्र के परिश्रम से भी उन्हें भगवान मिलते हैं। यदि धर्माचरण पूर्वक जीवन जीया जाए तो भगवान अवश्य मिलते है। ऋषभदेव से सीखने लायक है की ऋषभदेव जी यह मानते हैं कि वह गुरु गुरु नहीं है जो हमको मृत्यु से ना छुड़ा दे वह मां मां नहीं वह पिता-पिता नहीं , बंधु बंधु नहीं है, सखा सखा नहीं जो हमको मृत्यु से ना छुड़ा दे, और मृत्यु से यदि कोई मुक्त कर सकता है तो एकमात्र ज्ञान करा सकता है। इनके सुपुत्र श्री भरत जी जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत है, वह अपने चरित्र से दर्शाते हैं कि आप कितने भी विशाल क्यों न बन जाओ कितने भी बड़े क्यों न बन जाओ कितने बड़े त्यागी क्यों न बन जाओ यदि किसी से राग करोगे तो उसके राग में रगने के कारण तुम्हें पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा । हिरण से राज होने के कारण उन्हें पुनर्जन्म लेना पड़ा। किंतु भगवत भक्ति का प्रभाव था , की स्मरण बना हिरण बनने के बाद भी फिर ब्राह्मण के घर में उत्पन्न होकर स्वयं मुक्त हुए और अपने अनुचर्णो को भी मुक्त किया। जीवन में असावधानी होने से व्यक्ति पाप की ओर बढ़ जाता है। जैसे अजामिल असावधान होकर परमात्मा के पथ को छोड़कर धर्म के पथ को छोड़कर पापाचरण में लग गया था । किंतु भगवन नाम अवलंबन से चाहे वह पुत्र के रूप में ही क्यों ना हो उसे परमार्थ पर तक ले जाता है । बाद में किसी से अपराध हो जाए, कोई उसे दंड दे उसको सहने के बाद भी प्रतिक्रिया न करने पर परमात्मा रीझ जाते हैं। यह चरित्र आपको के व्रतासुर के माध्यम से समझने को मिलेगा। दूसरी ओर ध्यान देने लायक है या चरित्र कि भगवान पक्षपाती तो है किंतु देवता गंधर्व किन्नर के नहीं, भक्त के है ।असुर के घर में भी भक्त उत्पन्न हो जाता है प्रहलाद जैसा निश्चित रूप से परमात्मा उसका भी उद्धार करने के लिए नरसिंह बनकर आते हैं।प्रहलाद को प्यार देते हैं । आप परमात्मा के बनके रहोगे परमात्मा तुम्हारे लिए कहीं ना कहीं से प्रकट हो कर के तुम्हे गोद में लेगा तुम्हारा उत्थान करेगा । इसलिए सेवा संसार की, प्रेम परमात्मा से, ज्ञान अपना प्राप्त करने में सजग होकर सदा लगे रहना चाहिए। कथा श्रवण करने के लिए कथा पंडाल में भारी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे।
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