सहस्त्रकूट जिनालय में 1008 प्रतिमायें स्थापित की जा रही.. नवनिर्मित मानस्तंभ में प्रतिमायें स्थापित हुई…

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दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में युग श्रेष्ठ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य विद्या शिरोमणि आचार्य श्री समय सागर जी महाराज के चतुर्विध संघ के सानिध्य में बड़े बाबा जिनालय का कलशारोहण एवं सहस्त्रकूट जिनालय वेदी प्रतिष्ठा का अभूतपूर्व आयोजन चल रहा है। 9 जून को प्रातः अभिषेक ,शांतिधारा ,नित्यमह पूजन उपरांत सहस्त्रकूट मानस्तंभ ,मुनिसुब्रतनाथ जिनालय वेदी शुद्धि संस्कार के उपरांत मानस्तंभ में श्री जी की प्रतिमाओं की स्थापना आचार्य संघ के मंगल सानिध्य में की गई ।

इसके पश्चात सहस्त्रकूट जिनालय में जिनविम्ब, जिन प्रतिमा स्थापित करने का क्रम प्रारंभ हुआ प्रतिमाएं गगन विहार करके सहस्त्रकूट जिनालय में पहुंचाई गई । प्रचारमंत्री जय कुमार जैन जलज ने बताया इस अवसर पर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं आचार्य श्री समय सागर जी महाराज की संगीतमय पूजन की गई ।इस अवसर पर आचार्य विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित जापानी कविता हाईकू पुस्तक का मराठी एवं कन्नड़ भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित दोनों पुस्तकों का विमोचन किया गया ।

नव निर्मित बुंदेलखंड का प्रथम सहस्त्रकूट जिनालय में गगन विहार कर प्रतिमायें विराजित की जा रही हैं तब उस दृश्य का स्मरण हो गया जब आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पडगाहन पर पूज्य बड़े बाबा गगन विहार करके नए मंदिर में विराजित हुए थे। सहस्त्रकूट जिनालय में प्रतिमा स्थापित करने का क्रम अगले दिन भी जारी रहेगा ।कल छहघरिया जिनालय में भगवान मुनिसुब्रतनाथ की प्रतिमा विराजित होगी ।इस अवसर पर पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा आत्मा का पतन आत्मगत परिणामों के द्वारा ही हुआ करता है और आत्मा का जो उत्थान है वह भी आत्मगत पवित्र परिणाम के द्वारा हुआ करता है ।यह आगम के माध्यम से हमें ज्ञात हो जाता है ।

वस्तुतः प्रत्येक जीव स्वतंत्र परिणमन कर सकता है किंतु उसकी जो स्वतंत्रता है वह लुप्त हो चुकी है कर्माधीन परिणमन जब तक उस जीव का चलेगा तब तक वह बंधन का ही अनुभव करता है और बंधन का अनुभव करता हुआ संसारी प्राणी अनेक प्रकार के परिणाम कर लेता है । कलुषित भावों के माध्यम से उसका पतन होता है और कलुषित भावों के लिए ऐसे कौन से पदार्थ हैं जिनके माध्यम से वह आत्मा पतित होती चली जाती है। एक कारिका के माध्यम से इस विषय को थोड़ा सा विस्तार देना चाहते हैं। जिनेंद्र भगवान ने स्पष्ट कहा है कि इंद्रियों के माध्यम से उत्पन्न होने वाला जो सुख है वह ऐसा कहा है पांचो इंद्रियों के माध्यम से उत्पन्न होने वाला सुख हुआ करता है और वह सुख कैसा है मोह के दावानल को प्रज्वलित करने के लिए वह ईंधन का काम करता है ।

आचार्य कहना चाहते हैं मोह रूपी जो दावाग्नि है उसको और प्रज्वलित करना है तो इंद्रिय सुख ईंधन का काम करता है। दीपक आपने जलाया है और दीपक जल रहा है तेल अथवा घी दीपक के लिए ईंधन का काम कर रहा है ।ईंधन के बिना अग्नि जलती नहीं ईंधन समाप्त हो जाए अग्नि बुझ जाती है किंतु दावाग्नि अनंत काल से वह अग्नि जल रही है ।अखंड रूप से एक क्षण भी उसका अभाव नहीं हुआ है अनंत काल तक अभी भी वह अग्नि शांत नहीं हो रही है क्योंकि उसको ईंधन प्रतिफल मिल रहा है। ईंधन डालते चले जाओ अग्नि को बुझाया संभव नहीं है। दुख की परंपरा का वह बीज है दुख समाप्त हो आप प्रभु के चरणों में आकर जुड़ोगे भगवान सुनने वाले नहीं वह सुनते नहीं कुछ करते नहीं उन्होंने जगत का जो स्वरूप है बोध हो चुका है संसारी प्राणी उपदेश देने से मानता नहीं ।

क्योंकि जब तक अनुभव नहीं होगा तब तक वह ज्ञान प्रकट ही नहीं हो होता ।अनुभव अनंत काल से हो रहा है। दुख का अनुभव हो रहा है इसके उपरांत भी पंचेेंद्री के विषयों के प्रति जो आकर्षण बना हुआ है वह समाप्त नहीं हो रहा है उसको समाप्त करने के लिए भी जिनेंद्र भगवान की आराधना हमें करनी है। स़हस्त्रकूट का निर्माण हुआ है और उसमें विम्ब स्थापित हो रहे हैं उनका दर्शन करके हमें अपने मोह को शांत करना है। अपने आप शांत नहीं होगा ।क्योंकि वह अग्नि अपने आप जल नहीं रही है। अग्नि और उद्लित हो रही है उसको विषयों से मोड़ने की आवश्यकता है ।महाराज चारों ओर विषय दिखाई देते हैं हम क्या करें आंख खोलेंगे तो पांचो इंद्रियों के विषय आपके सामने उपस्थित हैं। किंतु उन पदार्थों को ग्रहण करने का भाव नहीं होना चाहिए। ग्रहण करना ठीक नहीं क्योंकि अपने से पृथक जो पदार्थ हैं वे अपने नहीं हो सकते तो अपना जो स्वरूप है उसको देखने के लिए आंख मूंदना होगा।

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