सत्तारूढ़ राजग गठबंधन के संख्या बल को देखते हुए लोकसभा अध्यक्ष पद ओम बिरला को मिलना प्रत्याशित था, मगर स्वस्थ संसदीय परंपरा के मुताबिक उनका इस पद पर सर्वसम्मति से चुना जाना अप्रत्याशित माना जाएगा। पिक्षले पांच दशकों में यह 1 मौका था, जब लोकसभा अध्यक्ष पद को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने सामने थे। देश के संसदीय इतिहास में अब से पहले तीन बार ही ऐसा मौका आया था। हालांकि, इस बार भी सरकार की ओर से सर्ववानुमति बनाने की लगातार कोशिशे होती रहीं, लेकिन बात नहीं बन सकी और अंतत ध्वनिमत से ओम बिरला विपक्ष के उम्मीदवार के सुरेश के बीच लोकसभा का फैसला किया गया। अध्यक्ष पद पर इस तनातनी के सत्ता पथ और विपक्ष के लिए अलग-अलग संकेत हैं। सत्ता पक्ष, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह संकेत देना चाहते थे कि बेशक इस बार उनकी सरकार सहयोगी दलों पर निर्भर है, लेकिन नीतिगत मोर्चे पर निरंतरता कायम है। फिर चाहे मंत्रिमंडल का गठन ही या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का चयन या फिर प्रधान सचिव की नियुकती, सभी पदों पर कमोबेश पुराने चेहरों के ऊपर ही भरोसा किया गया है। ऐसे में, लोकसभा अध्यक्ष जैसा महत्वपूर्ण पद भला कैसे छोड़ा जा सकता था ?
प्रधानमंत्री अपनी इस निरंतरता को राजनीतिक स्थिरता के रूप में पेश करता चाहते हैं। वह बताना चाहते हैं कि भाजपा के अल्पमत में होने के बावजूद यह एक मजबूत सरकार है, जिस पर उनका पूरा नियंत्रण है।
वह अपने कमजोरी का कोई संकेत नहीं देना चाहते, जो आमतौर पर गठबंधन की सरकार में देखी जाती है। रही बात विपक्ष की, तो इस आम चुनाव में और वह काफी मजबूती से उभरा है। यह सता पक्ष के हरेक वार पर पलटवार करना चाहेगा। के सुरेश का नाम आगे करने के यही राजनीति थी। चूंकि सुरेश केरल से आठ बार के सांसद रहे हैं और मौजूदा सदन के सबसे वरिष्ठ सांसद भी हैं, इसलिए विपक्ष उनको अस्थायी लोकसभा अध्यक्ष प्रोटेम स्पीकर मनाने की मांग कर रहा था, जिसे कहकर खारिज कर दिया गया कि चुनावों में यह सदन का हिस्सा नहीं आम थे। इसीलिए भतर्हरि महताब को दायित्व सौंपा गया, क्योंकि वह सात बार सांसद रह चुके हैं। सता पक्ष के सुरेश के नाम पर सहमत होकर सौहार्दता का परिचय दे सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ नतीजतन, विपक्ष ने लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए के सुरेश का नाम आगे कर दिया। हालांकि, मामला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं था। के सुरेश दलित हैं। उनके पर दांव खेलकर विपक्ष ने यह संदेश देने को भी कोशिश की है कि वह दलितों का हिमायती है और सत्ता पक्ष ऐसा नहीं चाहता। 2024 के चुनाव में दलित कार्ड काफी अहम साबित हुआ है। आंकड़ों की मानें, तो दलितों का वोट भाजपा से टिका है। चूंकि मुस्लिम भाजपा वोटर नहीं माने जाते, इसलिए आकलन है कि दलित-मुसलमान का जातिगत समीकरण सत्तारूद दल पर आगे भारी पड़ सकता है, क्योंकि इन दोनों को आबादी मिलकर करीब 32-33 प्रतिशत ही जाती है। चुनाव में हादिया ब्लॉक को पूर्वी उत्तर प्रदेश में ओबीसी का भी साथ मिला है और ब्राह्मण व राजपूत भी भाजपा से कुछ हद तक नाराज हैं। ऐसे में, विपक्ष की मंशा आने बाले विधानसभा चुनावों में इस जातिगत समीकरण का लाभ उठाने की हो सकती है। फिर , के सुरेश दक्षिण के नेता भी है , जहां से कांग्रेस को मुश्किल दिनों में संजीवनी मिलती रही है। जाहिर है, सत्ता पक्ष प्रधानमंत्री मोदी के उस कथन को लोकसभा में साकार करने से चूक गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार बहुमत से बनती है, लेकिन देश सहमति से चलता है। उपाध्यक्ष पद विपक्ष को देकर अध्यक्ष पद पर सर्वसम्मति बनाई जा सकती है, लेकिन लगता यही है कि बतौर सहयोगी चंद्रबाबू नायडू ने इस पद पर अपना दावा जता दिया है। मुमकिन है मोल-भाव में माहिर चंद्रबाबू नायडू ने अध्यक्ष पद छोड़ने के एवज में उपाध्यक्ष पद के साथ-साथ अमरावती को अपने सपनों की राजधानी बनाने के लिए केंद्र से आर्थिक मदद मिलने का वादा हासित किया हो। हालांकि, इसकी सच्चाई कुछ दिनों के बाद ही सामने आएगी। बहरहाल, संसद में विपक्ष की आक्रामकता आगे भी कायम रह सकती है। बुधवार को ही आपातकाल की निंदा करने पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के खिलाफ मोर्चा खोल दिया गया, जो संकेत है कि अगले पांच साल सरकार के लिए आसान नहीं रहने वाले।
लिहाजा, संसदीय कार्य मंत्री को काफी मेहनत करनी पड़ सकती है। उनकी मुस्किल इसलिए भी बढ़ सकती है, क्योंकि विपक्षी नेताओं से उनके रिश्ते अब भी उतने मधुर नहीं बन सकते हैं , जबकि एक अच्छे संसदीय कार्य मंत्री के लिए विपक्षी नेताओं से अच्छा रिश्ता काफी अहमियत रखता है। मुझे आज भी याद है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और प्रमोद महाजन संसदीय कार्य मंत्री। एक बार जब पूरा सत्र शोर- शराबे में खत्म होने वाला था, तब सेंट्रल हॉल में प्रमोद महाजन ने न सिर्फ विपक्ष के तमाम नेताओं से बात की, बल्कि उनको सदन चलाने के लिए राजी भी कर लिया। ऐसी अपेक्षा अब किरेन रिजिजू से भी होगी। दरअसल, एक भौच यह है कि नरमी दिखाने में सरकार को कमजोर मान लिया जाएगा जबकि गठबंधन की सरकारी में नरमी और लचीलापन मजबूती व स्थिरता का हिस्सा माने जाते हैं। दिक्कत यह भी है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में विश्वास की भारी कमी है, जो कदम-कदम पर दिख रहा है। ऐसे में, जरूरी है कि आपसी विश्वास को मजबूत किया जाए। यदि नीट-नेट परीक्षा, अग्निवीर योजना, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर सदन में बहस होती है, तो मुमकिन है कि विपक्ष अपनी सार्थक भागीदारी निभा सके। मगर यदि हंगामे की भेंट चढ़ते गए, तो देश के साथ लोकतंत्र को भी काफी नुकसान हो सकता है। उम्मीद है, ओम बिरला अपने इस महती दायित्व की समक्ष रहे होंगे। उनके सामने सोमनाथ चटर्जी जैसे उदाहरण है, जिन्होंने अपनी पार्टी के विचार को अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने के दौरान खुद पर हावी नहीं होने दिया। वैसे, राजनेताओ की आपसी कटुता भी सदन पर भारी पड़ती रहती है. जिसकी तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने हालिया बयान में इशारा किया है। हमारे राजनेताओं को इनसे बचकर संसदीय जिम्मेदारियों का निर्वहन करना होगा l
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