अकेलापन सजा भी है और मजा भी है..

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अकेलापन सजा भी है और मजा भी है, अकेले चलने में मुझे बड़ा आनन्द आता है- मुनि श्री सुव्रत सागर जी
दमोह
। उत्तम आकिंचन्य धर्म के पावन प्रसंग पर आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य और आचार्य श्री समयसागर जी महाराज की आज्ञानुवर्ती मुनि श्री सुव्रतसागर जी महाराज के सानिध्य में 1008 श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन नन्हें मंदिर दमोह में दसलक्षण पर्व के नवम दिवस में उत्तम आकिंचन्य धर्म के दिन शांति धारा संपन्न हुई कि आकिंचन्य का भाव होता है अकेलापन। हम अपने जीवन में मोक्ष मार्ग में जब अकेले रहते हैं कि हमारा दुर्भाग्य नहीं होता है अपितु यह हमारा सौभाग्य होता है क्यों क्योंकि अकेले रहने से आत्मा का ध्यान अवश्य होगा। किंतु अगर यही अकेलापन संसार के लोगों के पास आ जाए तो वह दुर्घटना का शिकार बना देता है। अकेलापन एकांत से खतरनाक नहीं होता है किंतु अगर हम चाहें तो उस अकेलेपन का सदुपयोग कर सकते हैं और अपने जीवन में ऐसी उपलब्धियों को प्राप्त कर सकते हैं जो भीड़ में रहकर नहीं हो सकती हैं। जैसे अगर देखा जाए तो वास्तव में हमारा जीवन अकेले ही चलता है किंतु यह आध्यात्म है वास्तव में देखा जाए तो हम अकेले कहीं होते ही नहीं है हमारा जन्म माता-पिता से होता है और मृत्यु में चार कंधों पर सवार होकर मरघट तक जाते हैं।
मुनिश्री ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हम दो के बिना आते नहीं है और चार के बिना जाते नहीं है इसलिए हमें अपने जीवन में अकेले रहने से डरना नहीं भीड़ में रहकर ज्यादा इतराना नहीं चाहिए। हमें हमारे जीवन में अपने अकेलेपन का फायदा उठाना चाहिए संसारी प्राणी अकेलेपन में विषय वासनाओं की ओर दौड़ता है किंतु संत साधु अकेलेपन से अपने ध्यान की तैयारी करता है। यह दुनिया का व्यवहार है जिसमें स्पष्ट देखा जाता है कि हमारे जीवन को प्रारंभ करने के लिए दो चाहिए अर्थात माता-पिता। माता-पिता के अभाव में हमारा जीवन प्रारंभ नहीं होता है और गर्भ में हम अकेले ही रहते हैं हमारा जीवन अकेलेपन से ही प्रारंभ होता है पर अकेलेपन पर ही समाप्त होता है। जब जन्म में दिगंबर मृत्यु में दिगंबर तो बीच में आडंबर बवंडर क्यों इस बात पर विचार करने वाला व्यक्ति दिगंबर बन जाता है। इसलिए जो व्यक्ति बीच के आडंबर बवंडर को अलग कर देता है हटा देता है वह व्यक्ति वास्तव में जन्म मृत्यु के दिगंबरत्व को समझ जाता है।
मुनिश्री ने बताया कि जब हमारा जन्म होता है तो हमारे शरीर पर प्रथम वस्त्र लंगोट आती है और जब हम संसारी प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो हमारे शरीर पर अंतिम वस्त्र कफन आता है देखने में यह आता है की अंतिम वस्त्र कफन और प्रथम वस्त्र लंगोट इन दोनों में जेब नहीं होती है। कहने का तात्पर्य है कि जब हमने अकेलेपन से जन्मे प्रारंभ किया कुछ भी साथ में नहीं लाए थे और जब हमने अकेलेपन से ही अपने जीवन का समाप्त किया कुछ भी नहीं ले जा पाएंगे तो ऐसे में बीच में इतना पाप और बवंडर क्यों करते हैं।
अगर हमें एक सुविधा मिल जाए कि हम अपने जीवन में जो भी कमाई वह अपने साथ ले जा सकते हैं तो सोचो इस दुनिया में कितना पाप प्रारंभ हो जाएगा कितना आतंकवाद कितना अत्याचार हो जाएगा लोग किसी भी पाप को करने में करने में डरेंगे नहीं क्योंकि उनको पता है कि हम अपने साथ अपनी सामग्री ले जा सकते हैं इस दुनिया का क्या होगा लेकिन शायद इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए जैन धर्म के अंतर्गत कुछ ऐसे व्रत आते हैं जो आपको इन पापों से बचाने में निमित्त बनती है जी हां इन्हीं व्रतों का नाम है दसलक्षण पर्व और इन्हीं दसलक्षण पर्व में एक धर्म होता है उत्तम आकिंचन्य धर्म। उत्तम आकिंचन्य धर्म समझने को अपने दिगंबर स्वरूप को समझ लो उत्तम आकिंचन्य धर्म समझ में आ जाएगा और जीवन मरण की सत्य कथा को भी विचार कर लो उत्तम आकिंचन्य धर्म  समझ में आ जाएगा। इसके पूर्व 1008 श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन सिंघई मंदिर दमोह में धर्म सभा का भी आयोजन किया गया जिसमें शांतिधारा के मुनि श्री ने धर्म सभा को सम्बोधित किया और कहा कि संसार में ना हमारा कोई है और ना ही हम किसी के हैं यही आकिंचन्य धर्मं।

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