दमोह शहर के विजयनगर में आचार्य श्री श्रवणानंद जी गुरुदेव के श्री मुख से चल रही श्रीमद् भागवत कथा…

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दमोह शहर के विजयनगर में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के पंचम दिवस में स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी के परम कृपा पात्र स्वामी श्री श्रवणनानद सरस्वती जी ने बताया कि भगवान भक्त पक्षपाती है। उनका प्रेमी पक्षी भी हो तो वे पक्षी के पक्ष में विराजमान हो जाते हैं। प्रह्लाद असुर बालक हैं- उनके नाम का अर्थ ही है प्रकृष्ट आनंद! जीवन में दुःख उनके पास फटकता नहीं है सदा प्रेम-आनंद और सुख से भरे रहते हैं। यह आनंद मिलता कहाँ से है- सतत् परमात्मा से जुड़े रहने से यह आनन्द मिलता है। प्रह्लादजी को सर्वत्र भगवद् दर्शन और सर्वत्र भगवद् अनुभूति होती रहती है। संपूर्ण शास्त्र इस बात पर सहमत है, भगवान अपना कहा भूल सकते हैं, अपनी बात से मुकर सकते हैं, युद्ध करते करते भाग भी सकते हैं, किन्तु भक्त का कहा हुआ कभी नहीं भूलते, कभी नहीं टालते हैं।प्रह्लादजी के कहने पर भगवान खम्ब से नृसिंह रूप में प्रकट हो गए। नृसिंह भगवान का रूप देखकर देवता डर रहे थे किंतु प्रह्लाद नहीं डर रहे थे।न डरने का कारण यही है की उनको परमात्मा का दर्शन हो रहा था l यदि क्रूर से क्रूर व्यक्ति में भी भगवद् दर्शन होने लगे है तो भय नहीं लगता है। भगवान को यदि पाना है तो अपने हृदय से कामनाओं को मिटाना चाहिए। जिस दिन नया संकल्प नहीं होगा उस दिन भगवान तुम्हारे सामने प्रकट होगा।धन के लिए सम्पत्ति के लिए यदि कोई भगवान से प्रेम करें तो यह बहुत ही घटिया सौदा लगता है।भगवान मिले तो भगवान का प्रेम माँगना चाहिए। प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहींl तुलसीदासजी कहते हैं-
‘कामिही नारि पियारि जिमि,
लोभिहीं प्रिय जिमि दाम,
तिमि रधुनाथ निरंतर प्रिय लागहू मोही राम।’भगवान को जब अपने से दूर ले जाना होता है तब वे जीव को संसार का खिलौना पकड़ा देते हैं और यदि अपना प्रेम देना होता है तो वे सब संसारी चीज़ों को हटाकर अपने से जोड़ लेते हैं।प्रह्लादजी ने भगवान से यही माँगा कि-आज के बाद माँगने की कामना ही समाप्त हो जाए।
यदि किसी से किसी प्रकार की चाहना होती है तो जीवन में पीड़ा को निमंत्रण देना ही है।
जिसके जीवन में विश्वास नहीं उससे अभागा कोई हो नहीं सकता। हम ईश्वर के हैं ईश्वर हमारे हैं, वे कभी हमारा त्याग नहीं कर सकते हैं- भागवत इस भाव से हमें भरता है। भगवान के लिये जितना भी समय दो ईमानदारी से दो। यदि फ़ोन नेटवर्क से न जुड़ा हो तो उसमें कोई मैसेज नहीं आएँगे। वैसेही यदि दिमाग़ परमात्मा से नहीं जुड़ेगा तो भगवान के मैसेज कैसे आएँगे! जैसे भी हो सके भगवान से जुड़ो-जप से, ध्यान से, कीर्तन से, पूजन से, सत्संग से किसी भी विधा से भगवान से जुड़ना चाहिए। भगवान के भक्त के पास अस्त-शस्त्र भले न हो उनकी रक्षा में सदा भगवान स्वयम रहते हैं। जीव का जन्म कर्म के पर्वश होता है भगवान का अवतार स्ववश करुणा से होता है। जीव की दृष्टि संसार में अटकी पड़ी है- उसके लिए भगवान कितना प्रयास करते हैं! भगवान अपने लिए नहीं नाचते हैं- संसार के विषयों के चक्कर में जो नाच रहे हैं उनको अपनी ओर खींचने के लिए नाचते हैं।अवतार-काल में जो लोग अवतार की अनेक लीला को देखते हैं वे भगवान में लीन होते हैं और जब अवतार काल नहीं होता है तब उन लीलाओं को गाकरके, सुनकर के लीन हो जाते हैं। जितनी देर भगवान की लीला होती है उनती देर मन अन्यत्र कहीं नहीं जाता है l अवतार अर्थात् उतरना – जो सब का पिता है वह पुत्र बन जाए, मित्र बन जाए, पति/ प्रियतम या सेवक भी बन जाए। यह चिंतन धारा केवल सनातन धर्म में संभव है। आप परमात्मा को जिस रूप में निहारना चाहो उस रूप में आ जाता है। आप जिस रूप में उनका चिंतन-भजन करेंगे परमात्मा आपका उसी रूप में चिंतन-भजन (सेवा) करेगा। परमात्मा अवतार एक स्थान में लेते हैं (वसुदेव के घर) और प्रसन्नता, उत्सव हो रहा है दूसरे स्थान पर (नन्द बाबा के घर) महामना के माध्यमसे ही परमात्मा मिलते है और उसी का वरण भगवान माता-पिता-बन्धु- स्वामी के रूप में करते हैं। धन तो बहुत लोगों के पास होते हैं पर हर कोई महान मन वाला नहीं होता- गोपियों की भाँति भगवान को भी कुछ देने का मन हो! आप महामना बन जाओ और परित: भगवान रहने लगेंगे। यदि आप उन्हें मन देंगे तो भगवान आपके घर में आपके अपने बनकर आएँगे।यदि सुखी जीवन चाहिए तो जीवन में “दान” चाहिए! दान एक दिव्य विधि है जिससे अपना धन शुद्ध होता है और शुद्ध धन का उपयोग करने से अपना मन पवित्र होता है और पवित्र मन में ही सुख-शान्ति का संचार होता है। भगवद् प्राप्ति जीवन का सब से बड़ा लाभ है। भगवान सर्वस्व बनकर आये हैं तबभी नन्द बाबा में इतनी विनम्रता है। यदि सम्बंधों में रस लाना चाहते हो तो जीवन की जितनी सफलताएँ हैं उनका श्रेय प्रिय को दो और असफलताएँ में अपने को रखो। स्वर्ग से आने वाले व्यक्ति कि पहचान है मीठी वाणी और देने की आदत। नर्क से आने वाले व्यक्ति कि पहचान है कठोर वाणी और लेने की आदत। भगवान को आँखों से नहीं देखा है पर माँ-बाप को तो देखा है! अगर आपके भीतर माता-पिता के प्रति आदर नहीं है तो आप भगवान के प्रति कितना भी आदर रखें भगवान आपका आदर नहीं करेंगे। आप भागवत पढ़ेंगे तो सब से बड़ा लाभ होगा कि आप आने वाले पीढ़ी के प्रश्न पूछने पर उन्हें सही दिशा दे पाओगे।

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