कुटिलता का त्याग करना छल, कपट, मायाचारी का त्याग उत्तम आर्जव धर्म है-मुनि श्री सुव्रत सागर जी
दमोह। सरलता के भाव को आर्जव धर्म कहते हैं। अर्थात कुटिलता का त्याग करना छल, कपट, मायाचारी का त्याग करना जैसे बच्चा जन्म के उपरांत यथाजत होता है उसमें किसी प्रकार के भोग वासना कोई बैर बुराई नहीं होती है वह सहज होता है सरल होता है इस तरह से अपना जीवन व्यतीत करना यह उत्तम आर्जव धर्म है। यह उद्गार मुनि श्री सुव्रतसागर जी महाराज ने 1008 श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन नन्हें मंदिर दमोह में उपस्थित दसलक्षण की धार्मिक सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किया। आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य और आचार्य श्री समयसागर जी महाराज की आज्ञानुवर्ती मुनि श्री सुव्रतसागर जी महाराज के सानिध्य में 1008 श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन नन्हें मंदिर दमोह में दसलक्षण पर्व के तृतीय दिवस में उत्तम आर्जव धर्म के दिन शांति धारा संपन्न हुई शांति धारा करने का सौभाग्य बहुत सारे श्रावकों को प्राप्त हुआ भक्तगणों ने अपने द्रव्य का सदुपयोग करते हुए शांति धारा के साथ दसलक्षण धर्म की पूजन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। मुनि श्री के सान्निध्य में दस दिन चलने वाले दसलक्षण पर्व के अवसर पर प्रतिदिन सुबह से अभिषेक पूजन शांति धारा एवं विधान संपन्न होते हैं फिर उपस्थित धर्म सभा को मुनिश्री अपनी मंगल देशना से संबोधित करते हैं जिसमें प्रत्येक दिन एक धर्म के अनुसार प्रवचन हुआ करते हैं। आज मायाचारी के त्याग करने पर उत्तम आर्जव धर्म जो प्रकट होता है उस पर मुनि श्री सुव्रतसागर जी महाराज ने अपनी वाणी से लोगों को अभिभूत किया मुनि श्री ने कहा कि हमारे जीवन में जो छल कपट मायाचारी आती है उसके द्वारा हमारा धर्म नष्ट होता है हम छल का काम किसके साथ करते हैं जो हमारे जीवन के सहयोगी है जैसे परिवार के सदस्य माता-पिता भाई बंधु समाज के लोग अथवा मित्रगण रिश्तेदार इत्यादि इन सब के साथ छल कपट करना या इन्हें धोखा देना अथवा इनको ठगना यह सब वास्तव में लगता है कि हम इनको ठग रहे हैं अपीतू होता यह है कि वास्तव में हम अपने आप को ठग रहे होते हैं क्योंकि अगर हमारे सहयोग करने वाले व्यक्तियों के साथ हम मायाचारी करेंगे छल कपट करेंगे विश्वास घात करेंगे तो इनसे हमारा संबंध खराब होगा और संबंध खराब होने से हमें संसार में जीने में परेशानी होगी अर्थात हम छल कपट माया जारी करके अपने आपके साथ ही धोखा करते हैं। जब तक हमारे जीवन में संसार की माया रहती है तब तक हमें परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता मुनि श्री ने अपनी बात को मजबूत करते हुए कहा कि जब रामचंद्र जी को वनवास हो गया था तो रामचंद्र जी के साथ लक्ष्मण और सीता भी वनवास के समय साथ गए थे जंगल की पगडंडियों पर चलती हुई राम आगे चलते थे पीछे लक्ष्मण चलते थे और बीच में सीता चलती थी राम परमात्मा के रूप में एवं लक्ष्मण आत्मा के रूप में स्वीकार किए गए हैं साथ-साथ में सीता को माया की संज्ञा दी गई है जैसे माया के कारण हमें मायापति अर्थात् परमात्मा का दर्शन नहीं होता ऐसे ही सीता के कारण लक्ष्मण को रामचंद्र जी का दर्शन नहीं होता किंतु कभी-कभी जब चलते-चलते रास्ते में मोड़ आता तो सीता बगल में हो जाती और लक्ष्मण जी को रामचंद्र जी का दर्शन हो जाता इसी तरह से जब हम संसार की माया ठगनी छल कपट को बगल में किसका आते हैं साइड में करते हैं तो हमें परमात्मा का दर्शन हो जाता है इसलिए संसार में रहते हुए अगर परमात्मा का दर्शन करना है तो निश्चित रूप से हमें माया को बगल में खिसकाना ही होगा। हमारे अपने जीवन में बहुत सारे ऐसे प्रसंग उपस्थित होते हैं जब हम अपनी ही चाहने वालों की शिकार बनते हैं वह हमें ठग लेते हैं अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए और हम कुछ भी नहीं कर पाते हैं किंतु अगर हमें दूसरे ठग रहे हैं तो ठगे जाना कि किसी को ठगना नहीं यही सबसे बड़ा धर्म है
मुनिश्री मायाचारी त्यागने का उपदेश देते हुए कहा कि अगर हमें मोक्ष में प्रवेश करना है तो मायाचारी करके कभी भी नहीं कर सकते क्योंकि मायाचारी का जीवन कभी सीधा नहीं होता है अभी तू है टेढ़ा होता है और जब तक वह टेढ़ा रहेगा तब तक वह मोक्ष में प्रवेश नहीं कर पाएगा जैसे की कोई सांप जब धरती पर विचरण करता है तो लहरा के चलता है तेरा मेरा होकर चलता है किंतु जब को कभी वह बामी में प्रवेश करता है तो सीधा ही प्रवेश करता है संसार में कितने भी टेढ़े बने रहो किंतु प्रभु के दर्शन करने में भगवान की भक्ति करने में अपने आप का सब टेड़ापन समाप्त कर देना और सीधे-साधे तरीके से भगवान की भक्ति में रम जाना यही सबसे बड़ा धर्म है।
मुनिश्री ने एक कविता के माध्यम से लोगों को निर्देशित करने का प्रयास किया उन्होंने कहा कितना कुछ भी कर लो आप अपने साथ सी की नोक के बराबर भी पदार्थ नहीं ले जा सकते ना यह माया साथ जाएगी नां यह काया साथ जाती है। सोना चांदी रुपया पैसा भाई बहन बंधु एक कभी भी किसी का साथ नहीं देते अंत में यह कोई साथ नहीं देते मरघट तक सिर्फ हमारी किया साथ देती है और उसके उपरांत तो किया भी माया के साथ छाया के साथ पीछे हट जाती है खाने पीने वाली सामग्री लड्डू लड्डू पेड़ा बर्फी रसगुल्ला यह सब की सब रख की रखे रह जाती है हमारा कोई साथ नहीं देता पहनने वाले कपड़े सूट पेंट टाई यह भी सब खूटी पर टंगे रह जाते है हमारे साथ कोई तैयार नहीं होता गाड़ी घोड़ा मकान मित्र बंधु कोई भी हमारा साथ नहीं देता यह दुनिया की माया माया के विस्तार का संसार हमारा साथ नहीं देता अगर कोई साथ देने वाला है तो वह हमारा धर्म जिस व्यक्ति ने इतनी बात समझ ली होगी उसे व्यक्ति को कभी परेशानी जा ही नहीं सकती धर्म का पालन करने में।
मुनि श्री ने टाई के बारे में यह भी बताया कि वास्तव में टाई है क्या ता आई वह वस्त्र है जो हम अपने छोटे-छोटे बच्चों को जब उनके मुंह से लार गिरती है तो उनके गले में एक लर-पुछना लार पौंछने वाला कपड़ा लटका देते हैं जिससे पूरे वस्त्र खराब नहीं होते हैं अभी तो मात्र वह कपड़ा खराब होता है इसी तरह से उसी को थोड़ा सा अच्छे से तैयार करके ताई बन गई भोजन करते समय भोजन की सामग्री पूरे वस्त्रों पर ना गिरे इसलिए टाई बनाई गई पर हमारे यहां लोग ऐसे अंधविश्वासी है कि ना देखते हैं ना जानते हैं और उसका अनुकरण कर बैठते हैं तो टाई और कुछ नहीं है लार पौंछने वाला एक कपड़ा है अथवा भोजन से कपडों को संभालने वाला कपड़ा है।
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